रेलगाड़ी ...रेलगाड़ी पार्ट-1

 

 क्लास ग्रुप में एक  मित्र के मेसेज से पता चला कि आज भारतीय रेल का हैप्पी बर्थडे है. याद करने बैठी तो हैरानी हुई कि ऐसा भी समय था, जब इंडिया में ट्रेन नहीं थीं.  ट्रेन  से जुडी अपनी यादों को समेटने बैठी तो लगा इतनी यादें एक ही पोस्ट में समेटना मुश्किल है. इसलिए आज इस पोस्ट के पहले भाग में मैंने कोशिश की है ट्रेन  से जुड़ी बचपन की यादों  को समेटने की

अपनी पहली ट्रेन यात्रा याद करने की कोशिश करूं तो कुछ याद नहीं आता. हमारे लिए रेल परिवार की तरह है, जिन्हें होश संभालते ही देखा, जैसे  मम्मी पापा, बब्बा दादी, दीदी भैया!  सफर कि तो बात ही क्या है, हम तो ट्रेन देख कर भी एक्साइट हो जाते थे. मुझे याद है, KG में हमें एक पार्क में पिकनिक में ले गए थे. ( उस जमाने में भी बच्चों को पिकनिक के नाम पर किसी पार्क में लेजाकर बेवकूफ बना देने का रिवाज़ था ) तभी पार्क के पीछे से ट्रेन  निकली तो हम सब बच्चे खेल रोक कर जोर जोर से चिल्ला कर और हाथ हिला कर टाटा करने लगे. यूँ ट्रेन के डब्बों को टाटा करना कोई नयी बात नहीं थी, हम तो मालगाड़ी तक को टाटा किया करते थे, पर उस दिन की खास घटना ये हुई की ट्रेन के सबसे पिछले गार्ड के डिब्बे से गार्ड अंकल ने हमें देख कर हाथ हिला दिया. सच में, उस दिन ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी बड़े सेलेब्रिटी से हाथ मिला लिया हो. कई दिनों तक घर में और दोस्तों से इस घटना का गर्व से बखान करते रहे.


                                                                                    चित्र: गूगल से साभार 

ट्रेन के सफर की सबसे पुरानी याद गर्मी की और दीवाली कि छुट्टियों की हैं. पापा की पोस्टिंग के साथ साथ ट्रेन बदलती रहती थी, पर डेस्टिनेशन सब का एक था, जबलपुर! एक अलिखित नियम था कि छुट्टियाँ बब्बा के घर ही मनाई जाएँगी. अगर किसी वज़ह से पापा को छुट्टी न मिले, तो  बब्बा छुट्टियों के एक दो दिन पहले ही आकर हम लोगों को ले जाते थे. छुट्टियों के उत्साह से भी बड़ी ख़ुशी ट्रेन यात्रा की होती थी. स्टेशन पहुँचते ही सब बच्चे बुक स्टाल पर धावा बोल देते, और चम्पक, लोटपोट, चंदा मामा वगैरह लेकर शान से ट्रेन में दाखिल होते. मम्मी पापा भी मैगजीन्स के नाम पर दिलेर हो जाते थे, शायद ये सोच कर कि उतनी देर बच्चे चुप तो रहेंगे.   रिजर्वेशन का उन दिनों रिवाज़ नहीं था, ट्रेन में इतनी भीड़ भी नहीं होती थी. ट्रेन में चढ़ कर सेकंड क्लास के डब्बे में खाली सीट ढूँढने में भी एक थ्रिल था. खाली सीट मिलते ही खिड़की के पास बैठने की होड़ मच जाती और अगर कोई समझौता न हो मम्मी बच्चों की पारी बाँध देतीं. ट्रेन चलने के एक दो घंटे के अन्दर ही  सारी पत्रिकाएं अदल बदल कर पढ़ ली जातीं और फिर टाइम पास करना एक बड़ा चैलेंज हो जाता. फिर शुरू होती अन्त्याक्षरी! शायद ट्रेन में बाकी यात्रियों को डिस्टर्ब ना करने के इरादे से या फिर आस-पास वाले अनजान लोगों पर अपने ज्ञान का रॉब झाड़ने के लिए ये अन्त्याक्षरी गानों की न होकर शहरों, देशो या फेमस व्यक्तियों के नाम पर होती थीं. पापा मम्मी और बब्बा जी तो दोनों टीमों कि मदद करते ही थे, जैसे जैसे सफर आगे बढ़ता, आस पास के लोग भी शामिल होते जाते. आस पास के कम्पार्टमेंट में  बैठे अकेले बच्चे, कुछ देर तो झाँक झांक कर देखते, और फिर सजेशन देने के बहाने खेल  में ही शामिल हो जाते.

ये तो हो गया बच्चों का टाइम पास, हमारे पापा के पास भी ट्रेन में टाइम पास का एक जरिया था. जब हम बुक स्टाल में मैगज़ीन खरीद रहे होते, तो पापा रेलवे टाइम टेबल के नए एडिशन के बारे में पूछ रहे होते. जर्नी के दौरान पापा टाइम टेबल में देख कर आस पास वालों को बताते रहते कि ट्रेन कितनी लेट चल रही है, अगला स्टेशन आने में कितना टाइम है, वगैरह. सिर्फ अपनी  नहीं, स्टेशन पर खड़ी दूसरी रेलों का भी टाइम टेबल देखा जाता और बाकायदा उस पर चर्चा होती. आस पास के यात्री भी पापा से टाइम टेबल उधार मांग कर ज्ञान वर्धन करते.

बचपन में हमें बीच के स्टेशन्स पर ट्रेन से उतरना अलाउड नहीं था, पर स्टेशन आते ही, खिड़की से झाँक कर प्लेटफार्म का नज़ारा जरूर देखते थे.  कई बिना एक भी स्टाल्स वाले स्टेशनस से गुजरने के बाद गाड़ी किसी जंक्शन पर पहुँचती तो ऐसा लगता जैसे किसी गाँव के मेले से सीधे  किसी बड़े  मॉल में पहुच गए हों. बीना, इटारसी या कटनी जैसे जंक्शन्स  का हमें बड़ा क्रेज होता था. एक तो वहां गाड़ी थोड़ी ज्यादा देर रूकती थी इसलिए, 5-10 मिनट के लिए उतरने की परमिशन मिल जाती थी, दूसरे वहाँ की रौनक अलग होती थी. वहां के बड़े बड़े बुक स्टाल, रेलवे कैंटीन, वेटिंग रूम,  लाउड स्पीकर पर होने वाली अनाउंसमेंट, सब अद्भुत लगता.  कहीं कहीं बड़ी सी डिजिटल घड़ी लगी होती थी, जिसमें टाइम देखने का अलग मज़ा था.

 

ट्रेन में टाइम पास करने में खेलों और मैगज़ीन के अलावा एक सहारा होता, खाने पीने का. हर स्टेशन पर चाय वाले चढ़ते, मम्मी बार बार चाय पीतीं और साथ ही स्टेशन की चाय को कोसती भी जातीं. सफर के लिए मेनू भी फिक्स्ड था, जो शायद उस समय यूनिवर्सल ट्रेन मेनू होता था.  पूरी और आलू की सब्जी, और साथ में आम का अचार! डिस्पोजेबल प्लेट्स का उस समय रिवाज़ नहीं था, पर डब्बे के ढक्कनों या अखबार में परोसी गयी पूड़ी को आलू   के साथ रोल करके खाने में जो स्वाद आता तो वो घर के खाने से बढ़ कर होता था.

पेट भर  खाने के बाद भी जब भी कोई चने वाला या मूंगफली वाला ट्रेन में चढ़ता तो सबके मुंह में पानी आ जाता. मूंगफली वाले से एक्स्ट्रा नमक की पुड़ियों कि फरमाइश होती, जिसे वो भी बड़ी उदारता से पूरी करता. भुनी हुई मूंगफली को छील कर उसके एक एक दाने में नमक मिला कर खाने का जो मज़ा ट्रेन में है, वो और कहाँ?

इस तरह हंसते खेलते, खाते पीते, सफ़र कब कट जाता, पता ही नहीं चलता. कभी सोचती हूँ, ये रेलगाड़ी  न होतीं तो ? पर भारतीय रेल का न होना इमेजिन करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है!

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