मीठी यादें

 

बचपन में हमारी दीवाली और गर्मियों की छुट्टियाँ जबलपुर में बब्बा के घर पर गुजरती थीं. वहां चाचाजी और बुआजी के बच्चों के साथ मौज मस्ती में कैसे टाइम बीतता था, पता ही नहीं चलता था. छुट्टियों का हम बेसब्री से इंतजार करते थे, पर  गर्मियों की छुट्टी का एक बहुत बड़ा आकर्षण होता था, आइस  क्रीम! उस जमाने में हम कुल्फी, ऑरेंज बार, अलाना-फलाना बार के बारे में नहीं जानते थे, हम तो बस लकड़ी की डंडी में लिपटी हुई अद्भुत स्वाद वाली रंग बिरंगी बर्फ  दीवाने थे, जिसे आइस  क्रीम कहा जाता था.   आइस क्रीम वाले की घंटी की आवाज़ सुनते ही हम सब बच्चे गिरते पड़ते चप्पल पहन कर बाहर भागते. घर से थोड़ी दूर अगले चौराहे पर  आइस क्रीम वाले को पकड़ना जो होता था.   अगले चौराहे पर इसलिए, क्योंकि हमारे बब्बाजी (यानि दादाजी)  को आइस क्रीम से सख्त नफरत थी.   अगर वे कभी किसी बच्चे को आइस क्रीम  खाते देख लेते तो उसी समय फिंकवा देते: फेंको इसे, नाले के पानी से बनती है ये!

आइस क्रीम फेंके जाने के गम में कभी बब्बा से ये पूछने का ख़याल भी नहीं आया कि आपको कैसे पता कि नाले के पानी का टेस्ट कैसा होता है? वैसे आ भी जाता तो हिम्मत कहाँ से लाते!

तो हम  बच्चे आइस क्रीम वाले की घंटी सुनते ही  मम्मी और चाची से मिली हुई अठन्नियां, चवन्नियां समेटकर बब्बा की तेज नज़रों से छिप कर भागते. आइस क्रीम वाले का बिज़नस सेंस भी कमाल का था. उसे अपने नन्हे मुन्ने ग्राहकों की मजबूरियों का पूरा ख़याल था, सो वो घर के बाहर सिर्फ एक घंटी बजाकर तेजी से निकल जाता और आगे जाकर चौराहे पर  इंतज़ार करता रहता. हम चिल्लर गिन कर उसे थमाते और लाल-गुलाबी आइस  क्रीम की चुस्कियां लेते हुए  वापस चल पड़ते.  कोशिश होती कि घर में घुसने के पहले ही पूरी खा लें नहीं तो  घर के किसी कोने में छिप कर खानी पडती. बिना बब्बा की नज़र पड़े पूरी आइस क्रीम ख़तम करना  किसी किले को फतह करने के बराबर  था.  आइस क्रीम खाने का एक और बोनस होता था,  लाल  हो गए होंठ,  जिन्हें  बब्बा की नज़रों से छिपाना भी जरूरी होता था, पर मुंह धोकर उस लाली को जल्दी दूर करने का दिल नहीं करता था. 



 

सारे खतरे उठाकर भी आइस क्रीम तो खानी ही होती थी. उस आइस क्रीम पर कुछ ज्ञानीजन ( उस समय ज्ञान बांटने का whole-sole कॉन्ट्रैक्ट  बड़े भाई बहनों  और cousins के पास होता था) ये भी ज्ञान देते थे कि जिस चीज़ के लिए हम लोग दीवाने थे,  वो असल में आइस क्रीम तो थी ही नहीं क्योंकि इसमें दूध तो था ही नहीं. खैर, बचपन में मिले हर  ज्ञान की तरह इस ज्ञान का  भी  दोस्तों में बाँटने के सिवा हमारे लिए कोई उपयोग नहीं था. अब दूध ना होने से वो स्वादिष्ट पदार्थ आइस क्रीम ना भी कहलाये तो क्या, खाना तो छोड़ नहीं सकते थे न!

जैसे-जैसे बड़े हुए, पता चला, और भी आइस क्रीम हैं दुनिया में उस लाल-गुलाबी तथाकथित आइस क्रीम के सिवा! ये भी पता चला कि आइस क्रीम की ख़ास दुकानें भी होती हैं, जिन्हें आइस क्रीम पार्लर कहते  हैं, जबलपुर की पटेल आइस क्रीम में नए नए स्वादों से परिचय हुआ,  और  कॉलेज में आते-आते तो  Kwality, Dinshaw’s वगैरह की आइस क्रीम के सामने बचपन की आइस  कैंडी का स्वाद भूल से गए.

कॉलेज के दिनों में एक बार भैया, दीदी और मैं, चाचीजी के यहाँ बैठे थे. तभी हमारा सबसे छोटा कजिन जो उस समय स्कूल में था,हम सब  के लिए  बड़े गर्व से वही ठेले वाली आइस क्रीम लेकर आया.  


  हम सब ने लपक कर आइस क्रीम पकड़ी और बचपन के किस्से सुनाते हुए खानी शुरू की.

पर यह क्या? पहली चुस्की लेते ही जबान उस  आइस क्रीम की तरह ही फ्रीज़ हो गयी. मैंने नज़रें उठायीं, तो भैया और दीदी की आँखों में भी वैसा ही भाव था. हाथों में वही आइस क्रीम थी, जिसे खाने के लिए बरसों पहले भरी धूप में दौड़ते हुए जाते थे, दिल में वही बरसों पुरानी यादें थीं, पर जबान कुछ और कहना चाह रही थी.

कुछ देर के असमंजस के बाद आखिर दीदी ने सब के दिल की बात कह ही डाली,” बब्बा सही कहते थे! ये आइस क्रीम सच में नाले के पानी से ही बनती है!”

हम सब खूब  हँसे.  दूध तो दूर की बात इसमें तो शायद शक्कर भी नहीं थी! पानी में थोडा शरबत और सैक्रीन घोल कर जमा दी गयी उस आइस क्रीम में तो कोई स्वाद नहीं था, पर बचपन की उससे जुडी हुई यादें जरूर बहुत मीठी थीं!

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